Wednesday, August 31, 2022

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने OBC की 18 जातियों को SC कैटेगरी में शामिल करने के नोटिफिकेशन को रद्द कर दिया है ।

समाजवादी पार्टी और योगी सरकार के शासन काल के दौरान इन 18 जातियों को ओबीसी से हटाकर एससी में शामिल करने का नोटिफिकेशन जारी हुआ था। हाईकोर्ट ने 24 जनवरी 2017 को इन जातियों को सर्टिफिकेट जारी करने पर रोक लगाई थी। इन जातियों में मझवार, कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिंद, भर,राजभर, धीमान, बाथम,तुरहा गोडिया, मांझी और मछुआ जातियां शामिल हैं। दरअसल याचिकाकर्ता ने कोर्ट में दलील दी थी कि किसी जाति को एससी, एसटी या ओबीसी में शामिल करने का अधिकार सिर्फ देश की संसद को है। 

 उक्त आदेश चीफ जस्टिस राजेश बिन्दल और जे. जे. मुनीर की बेंच ने  2016 और 2019 के नोटिफिकेशन को चुनौती देने वाली डा. बी. आर. अम्बेडकर ग्रन्थालय एवं जन कल्याण और अन्य की पी.आई.एल. को स्वीकार करते हुए पारित किया! 

जानकारी के मुताबिक अखिलेश सरकार ने अपने कार्यकाल के आखिरी दिनों में 22 दिसंबर 2016 को नोटिफिकेशन जारी कर 18 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने का नोटिफिकेशन जारी किया था। अखिलेश सरकार की तरफ से जिले के सभी डीएम को आदेश जारी किया गया था कि इस जाति के सभी लोगों को ओबीसी की बजाय एससी का सर्टिफिकेट दिया जाए।

बाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच ने 24 जनवरी 2017 को इस नोटिफिकेशन पर रोक लगा दी थी। 24 जून 2019 को यूपी की योगी सरकार ने एक बार फिर से नया नोटिफिकेशन जारी किया इन जातियों को ओबीसी से हटाकर एससी कैटेगिरी में डालने का नोटिफिकेशन जारी किया था।  हाई कोर्ट में याचिकाकर्ता की तरफ से दलील दी गई थी कि अनुसूचित जातियों की सूची भारत के राष्ट्रपति द्वारा तैयार की गई थी। इसमें किसी तरह के बदलाव का अधिकार सिर्फ देश की संसद को है। राज्यों को इसमें किसी तरह का संशोधन करने का कोई अधिकार नहीं है।
रिपोर्ट: अरुण कुमार गुप्त अधिवक्ता उच्च न्यायालय प्रयागराज

Thursday, August 25, 2022

हस्तलेख विधि पर बिशेष जानकारी प्रदान करने हेतु व्याख्यान कार्यक्रम का आयोजन

दिनांक 27 अगस्त 2022 को समय 6:30 बजे से अधिवक्ता परिषद उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड द्वारा हस्त लेखविधि पर व्याख्यान अर्थात स्वाध्याय मंडल का आयोजन किया जा रहा है। इस कार्यक्रम से जुड़ने के लिए अधिवक्ता परिषद उत्तर प्रदेश उत्तराखंड के ट्विटर हैंडल फेसबुक पेज एवं यूट्यूब चैनल से जुड़ा जा सकता है।
इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता श्रीमान अभिषेक वशिष्ट जी होंगे जो कि एक जाने-माने हस्त रेखा विशेषज्ञ एवं फॉरेंसिक एक्सपर्ट हैं।



यौन इरादे से बच्चे के निजी अंगों को छूना POCSO एक्ट की धारा 7 के तहत यौन उत्पीड़न के रूप में माना जाने के लिए पर्याप्त है- बॉम्बे हाईकोर्ट

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि केवल यौन इरादे से बच्चे के निजी अंगों को छूना POCSO एक्ट (The Protection of Children from Sexual Offences Act) की धारा 7 के तहत यौन उत्पीड़न के रूप में माना जाने के लिए पर्याप्त है। इसके साथ ही चोट का प्रदर्शन करने वाला मेडिकल सर्टिफिकेट अनिवार्य नहीं है।

कोर्ट ने कहा,

"मेडिकल सर्टिफिकेट में उल्लिखित चोट की अनुपस्थिति से उसके मामले में कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि POCSO एक्ट की धारा 7 के तहत परिभाषित यौन उत्पीड़न के अपराध की प्रकृति में POCSO एक्ट की धारा 8 के साथ पठित धारा 7 के प्रावधान में उल्लेख है कि यौन इरादे से निजी अंग को छूना भी आकर्षित करने के लिए पर्याप्त है।"

जस्टिस सारंग कोतवाल ने 2013 में नाबालिग लड़की के यौन उत्पीड़न के लिए दोषी ठहराए गए व्यक्ति की अपील खारिज कर दी। नवंबर, 2017 में उसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा धारा 354 और PCOSO एक्ट की धारा 8 के तहत दोषी ठहराया गया था और उसे पांच साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई थी।
पीड़ित पक्ष का मामला यह है कि जब वह घर के बाहर अपने दोस्तों के साथ खेल रही थी तो उस व्यक्ति ने लड़की को उठा लिया और उसके गुप्तांगों को छुआ और चुटकी ली। मां के पुलिस से संपर्क करने के बाद शिकायत दर्ज कराई गई।

पीड़िता का बयान सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज किया गया।
आरोपी ने कहा कि लड़की के पिता ने झगड़े के बाद उसे झूठा फंसाया और एफआईआर दर्ज करने में दो दिन की देरी हुई। उसने तर्क दिया कि मामला इसलिए भी संदिग्ध है, क्योंकि पीड़ित के शरीर पर कोई चोट नहीं है।
हालांकि, पीठ ने कहा,

"पीड़ित ने घटना का पर्याप्त विस्तार से वर्णन किया। पीड़ित गवाही सच्ची प्रतीत होती है। पीड़ित द्वारा अपीलकर्ता की गलत पहचान करने की कोई संभावना नहीं है।"

इसके अलावा, POCSO एक्ट की धारा 7 के तहत वर्णित यौन उत्पीड़न को मेडिकल साक्ष्य के रूप में चोटों की अनुपस्थिति में भी यौन इरादे को साबित करने के रूप में बनाया गया।
कोर्ट ने कहा,

"इस मामले में पीड़िता और उसकी मां का आंखों देखा विवरण आत्मविश्वास को प्रेरित करता हैं और उनके वर्जन पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। अपीलकर्ता का बचाव वास्तव में उसके कारण की मदद नहीं करता। इस प्रकार, इन सभी पहलुओं पर विचार करते हुए हस्तक्षेप का कोई मामला नहीं है। आक्षेपित निर्णय और आदेश किया जाता है और अपील खारिज की जाती है।"

केस टाइटल: रामचंद्र श्रीमंत भंडारे बनाम महाराष्ट्र राज्य

रिपोर्ट: अरुण कुमार गुप्त अधिवक्ता उच्च न्यायालय प्रयागराज

Tuesday, August 23, 2022

पॉक्सो एवं एस. सी एस.टी.एक्ट के अंतर्गत अभियुक्त को आजीवन कारावास की सज़ा

श्रीमान विशेष न्यायाधीश पॉक्सो एक्ट जनपद सम्भल स्थान चंदौसी श्री अशोक कुमार यादव के न्यायालय से अभियुक्त अर्जुन पुत्र कृपाली निवासी ग्राम फिरोजपुर थाना नखासा जिला सम्भल  को विशेष सत्र परीक्षण संख्या -04/2021, अपराध संख्या -538/2020, अंतर्गत धारा -366,376 IPC एवं 3/4 पॉक्सो एक्ट एवम  3(2)SC ST ACT थाना -कोतवाली नखासा, जिला सम्भल। में अभियुक्त द्वारा नाबालिग पीड़िता को हिमाचल प्रदेश में ले जाकर  लगातार बलात्कार किया गया। जिसके परिणाम स्वरूप आज माननीय न्यायालय द्वारा अभियुक्त को आजीवन कारावास का कठोर कारावास एवं 20,000 हजार रूपये का जुर्माना से दंडित किया गया।
23-08-2022

Sunday, August 21, 2022

तलाक़-ए-हसन क्या है?


सुप्रीम कोर्ट ने एक मुस्लिम महिला बेनज़ीर की याचिका की सुनवाई के दौरान ये कहा कि इस्लाम में 'तलाक़-ए-हसन' उतना अनुचित भी नहीं है.

क्या है मामला? 

बेनज़ीर हिना की वकील सुदामिनी शर्मा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि उनकी मुवक्किल का आठ माह का बच्चा है और बेनज़ीर के पति ने किसी अधिवक्ता के ज़रिए तीन बार लिखित रूप में तलाक़ भेजा है और कहा है कि 'तलाक़-ए-हसन' के तहत उन्होंने ऐसा किया.

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 'ट्रिपल तलाक़' या एक साथ तीन बार तलाक़ कहने से शादी ख़त्म होने को ग़लत करार दिया था. संयोग से सुप्रीम कोर्ट का ये फ़ैसला भी वर्ष 2017 के अगस्त महीने में ही आया था.

अब बेनज़ीर ने 'तलाक़-ए-हसन' को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. उन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि "अदालत इस प्रक्रिया को 'एकतरफ़ा, असंवैधानिक' क़रार दे क्योंकि ये 'संविधान के अनुछेद 14, 15, 21 और 25 का उल्लंघन है."

हालांकि सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम एम सुन्दरेश की खंडपीठ ने कहा कि "तलाक़-ए-हसना 'उतना अनुचित भी नहीं है." ये टिप्पणी न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने फ़ैसला लिखते समय मौखिक रूप से की. 

उन्होंने टिप्पणी करते हुए ये भी कहा कि ''तलाक़-ए-हसन' उतना अनुचित भी नहीं है हम नहीं चाहते कि इस मामले को कोई एजेंडे के रूप में इस्तेमाल करे."

उनका कहना था कि वो आवेदनकर्ता बेनज़ीर के वकील की दलील से सहमत नहीं हैं. दो सदस्यों वाली खंडपीठ की अध्यक्षता कर रहे न्यायमूर्ति कौल ने ये भी कहा कि मुस्लिम महिलाओं को भी 'ख़ुला के तहत तलाक़' मांगने की स्वतंत्रता' है. यानी मुस्लिम महिला ख़ुद से भी तलाक़ ले सकती है.

तलाक़ सबसे बुरा काम"

सुदामिनी शर्मा ने कहा कि बेनज़ीर के पति यूसुफ़ नकी ने तलाक़ के लिए नहीं लिखा बल्कि अपने वकील के ज़रिए ही तीन बार तलाक़ की चिट्ठियां भिजवाईं. बेनज़ीर ने इस प्रक्रिया के संवैधानिक औचित्य पर सवाल उठाते हुए इस पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की है.

इस बीच बेनज़ीर को उनके पति ने 'मेहर' के 15,000 रुपये दिए जो उन्होंने वापस लौटा दिए.

अदालत ने इस मामले की अगली सुनवाई अगस्त की 28 तारीख़ को रखी है.

जाने-माने इस्लामिक मामलों के जानकार और आलिम मौलाना राशिद ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का स्वागत किया, मगर उन्होंने बेनज़ीर के पति यूसुफ़ नकी ने जिस तरह तलाक़ दिया है उसपर आपत्ति जताई है. उनका कहना है कि पूरे मामले में मध्यस्ता करने की कोशिश भी नहीं की गई जो ग़लत है.
मौलाना राशिद जिन्होंने इस्लामी धार्मिक किताबें लिखी हैं कहते हैं, "अल्लाह के लिए सबसे बुरा काम कोई है तो वो है दो जीवन साथियों का तलाक़ लेना."

इसलिए उनका कहना है कि समाज के लोगों को बीच में मध्यस्थता करनी ही चाहिए. इस पर शरियत और इस्लामी तौर तरीक़ों की जानकारी रखने वाले आलिम या विद्वान कहते हैं कि शरियत में इस प्रक्रिया को स्पष्ट तरीक़े से बताया भी गया है.
हसन का मतलब 'बेहतर'
मौलाना राशिद कहते हैं, "तलाक़-ए-हसन की प्रक्रिया लंबी है. हसना का मतलब 'बेहतर' होता है इसलिए ये बेहतर तरीक़ा है."

मुस्लिम उलेमा कहते हैं कि सिर्फ़ तलाक़ बोलना ही काफ़ी नहीं है. वो कहते हैं कि ''पहली बार तलाक़ बोलने के बाद दंपति के बिस्तर भी अलग हो जाने चाहिए और दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं होना चाहिए. ऐसा महिला की तीन माहवारियों तक होना चाहिए.''

कांधला के रहने वाले मौलाना राशिद के अनुसार, शरियत में तलाक़ को ही ग़लत माना गया है.

उनका कहना है, ''तलाक़-ए-हसन के तहत पहली बार तलाक़ बोलने के बाद दंपति के बीच विवाद को ख़त्म करने की प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए - या तो पंचायत के माध्यम से हो या फिर दोनों के परिवारों के लोगों का ये प्रयास करना चाहिए.

दूसरी बार भी तलाक़ बोलते वक़्त गवाह भी मौजूद रहने चाहिए और मध्यस्ता की प्रक्रिया भी होनी चाहिए. इतने प्रयासों के बाद भी अगर दोनों के बीच ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं कि तलाक़ का ही एक रास्ता बचता है, उस स्थिति में तीसरी माहवारी के बाद ही तलाक़ हो जाता है. वो भी जब सारे प्रयास ख़त्म हो जाएँ. इसमें पत्नी की सहमति भी ज़रूरी है.''
इस्लामी क़ानून के कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि इस बीच दंपति अगर एक साथ रहे और एक साथ एक ही बिस्तर पर सोते भी रहे तो ऐसी सूरत में ये तलाक़ मान्य ही नहीं होगा. उनका तर्क है कि अलग-अलग रहने पर ही पति और पत्नी को ये एहसास होगा कि उनमें क्या-क्या कमियां हैं और क्या वो एक-दूसरे से अलग होकर रह पाएंगे?
महिलाओं को भी तलाक़ देने का अधिकार
लेकिन पत्रकार रह चुकी बेनज़ीर ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि उनके साथ जो हुआ वो एकतरफ़ा क़दम था जबकि महिला को भी अधिकार होना चाहिए ये फ़ैसला करने का कि वो भी तलाक़ चाहती है या नहीं.

सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति कॉल ने मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा कि मुस्लिम महिला को भी 'ख़ुला' यानी तलाक़ देने का अधिकार है. हालांकि मुस्लिम उलेमा कहते हैं कि ख़ुला लेने की सूरत में महिला को शादी के समय तय की गई 'मेहर' की रक़म नहीं मिलेगी.

मुस्लिम उलेमाओं के बीच इसको लेकर बहस भी चल रही है क्योंकि अलग-अलग 'फ़िरक़े' या पंथ अलग-अलग सामाजिक रीतियों के हिसाब से चलते हैं. उनका कहना है कि बरेलवी मुसलमान शरीयत और हदीस की व्याख्या अपने हिसाब से करते हैं तो देवबंदी और सलफ़ी मुसलमान अपने हिसाब से.

अदालतों में जब मामले पहुँचते हैं तो धार्मिक स्वतंत्रता की वजह से अदालतें इन मुद्दों को समाज पर ही छोड़ना बेहतर समझती हैं. ऐसा बेनज़ीर के मामले में भी हुआ है.
प्रस्तुतकर्ता 
अरुण कुमार गुप्त अधिवक्ता
 उच्च न्यायालय प्रयागराज
मो. नं - 9450680169

Saturday, August 20, 2022

रोजगार की इस अवधि के दौरान, किसी व्यक्ति को 'एडवोकेट' नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वह एक एडवोकेट के रूप में प्रैक्टिस नहीं कर रहा है- गुजरात हाईकोर्ट

गुजरात हाईकोर्ट (Gujarat High Court) ने दोहराया कि एक वकील जो अदालतों के सामने पेश नहीं होता है और खुद को "एडवोकेट" के रूप में नामित नहीं कर सकता है, भले ही वह बार काउंसिल में नामांकित हो।
कोर्ट ने कहा कि एडवोकेट अधिनियम और बार काउंसिल के नियमों के अनुसार, एक बार रोजगार की शर्तों के लिए एक वकील को अदालतों के सामने याचना करने और पेश होने की आवश्यकता नहीं होती है, तो रोजगार की इस अवधि के दौरान, किसी व्यक्ति को 'एडवोकेट' नहीं कहा जा सकता है क्योंकि वह एक एडवोकेट के रूप में प्रैक्टिस नहीं कर रहा है।
जस्टिस बीरेन वैष्णव की एकल पीठ ने कहा,
"एडवोकेट" शब्द की व्याख्या एक ऐसे व्यक्ति के रूप में की गई है, जहां बार काउंसिल में नामांकन मात्र से याचिकाकर्ता अपेक्षित योग्यता का दावा करने का हकदार नहीं हो जाता है, जैसा कि दीपक अग्रवाल (सुप्रा) के रूप में वास्तव में दलील देने और पेश होने के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्याख्या की गई है।"
यह टिप्पणी दो याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान की गई जिसमें सामान्य राज्य सेवा में संयुक्त चैरिटी आयुक्त के पद के इच्छुक याचिकाकर्ताओं को भर्ती नियमों के अनुसार एडवोकेट के रूप में अपेक्षित अनुभव की कमी के कारण अपात्र घोषित किया गया था। नियम न्यूनतम आवश्यकता के रूप में 10 वर्ष का अनुभव निर्धारित करते हैं।
याचिकाकर्ताओं का प्राथमिक तर्क यह था कि नियमों के अनुसार उम्मीदवार को एडवोकेट अधिनियम 1961 के तहत कम से कम 10 वर्षों के लिए नामांकित किया जाना चाहिए और याचिकाकर्ता उसी का अनुपालन कर रहे हैं। केवल इसलिए कि वे कार्यरत में हैं इसका अर्थ यह नहीं था कि वे अपना नामांकन खो देंगे। नामांकन जारी रहता है भले ही वह कार्यरत हों क्योंकि उसका नाम रोल से नहीं हटाया जाता है बल्कि केवल निलंबन में रखा जाता है। इन तर्कों को बल देने के लिए आर. श्रीकांत और अन्य बनाम केरल लोक सेवा आयोग, 2009 की WP संख्या 3185 का संदर्भ दिया गया था।
इसके विपरीत, GPSC ने दीपक अग्रवाल बनाम केशव कौशिक और अन्य 2013 (5) SCC 277 पर व्यापक रूप से भरोसा किया, यह तर्क देने के लिए कि एक एडवोकेट का अर्थ अनिवार्य रूप से एक व्यक्ति है जो वास्तव में न्यायालयों के समक्ष प्रैक्टिस कर रहा है। यदि वे कार्यरत हैं और इस परिभाषा के अनुसार कोर्ट में पेश नहीं को रहे हैं, तो वे केवल एक कर्मचारी बन जाते हैं, न कि 'एडवोकेट' जैसा कि एडवोकेट अधिनियम में व्यक्त किया गया है।
जस्टिस वैष्णव ने कहा कि श्रीकांत के फैसले में, केरल उच्च न्यायालय ने माना था कि सेवा में एडवोकेट के नियोजन के दौरान जो निलंबित किया गया है वह नामांकन नहीं है क्योंकि प्रैक्टिस के प्रमाण पत्र के निलंबन का मतलब यह नहीं है कि बार काउंसिल के रोल पर नामांकन बंद हो जाता है।
हालांकि, दीपक अग्रवाल मामले में, 'एडवोकेट' या 'प्लीडर' का अर्थ सुप्रीम कोर्ट ने तय किया था। उसमें अदालत ने सुषमा सूरी बनाम सरकार (एनसीटी दिल्ली), 1999 (1) एससीसी 330 पर भरोसा किया था कि अगर एक वकील के रूप में नामांकित व्यक्ति प्रैक्टिस करना बंद कर देता है और रोजगार लेता है तो ऐसा व्यक्ति ' एक वकील के रूप में कोई खिंचाव नहीं' कर सकता है।
बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स के नियम 49 का हवाला देते हुए, जस्टिस वैष्णव ने कहा,
"यदि कोई वकील रोजगार लेने के आधार पर प्लीडर के रूप में याचना या काम नहीं करता है, तो उसकी सगाई की शर्तों के अनुसार कि वह एक मात्र कर्मचारी बन जाता है और इसलिए बार काउंसिल ने "एडवोकेट" की अभिव्यक्ति को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में समझा है जो वास्तव में अदालतों के समक्ष प्रैक्टिस कर रहा है।"
दीपक अग्रवाल में भी, सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट अधिनियम की धारा 35 (4) को स्पष्ट करने के लिए यह स्पष्ट किया कि जहां एक वकील को प्रैक्टिस से निलंबित कर दिया जाता है, उसे किसी भी अदालत के समक्ष प्रैक्टिस करने से रोक दिया जाता है। इसलिए, यदि प्रैक्टिस के प्रमाण पत्र को सरेंडर करने के उद्देश्य पर विचार किया जाता है, तो इसका तात्पर्य है कि एक व्यक्ति को एडवोकेट नहीं रह जाता है।
इस प्रकार, कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला,
"जहां तक उनके प्रैक्टिस करने के अधिकार पर विचार किया जाता है, बार काउंसिल की सूची में उनके नाम का बने रहना कोई मायने नहीं रखता है और ऐसा व्यक्ति खुद को एक वकील के रूप में नामित नहीं कर सकता है।"
इन उदाहरणों को ध्यान में रखते हुए हाईकोर्ट ने याचिकाओं को खारिज कर दी।
केस टाइटल: पृथ्वीराजसिंह भागीरथसिंह जडेजा बनाम गुजरात राज्य एंड 2 अन्य

केस नंबर: सी/एससीए/1672/2022

प्रस्तुतकर्ता- अरुण कुमार गुप्त एडवोकेट
उच्च न्यायालय, प्रयागराज।
# 9450680169

Thursday, August 18, 2022

वकील कोर्ट के अधिकारी हैं, वे उसी तरह के सम्मान के हकदार हैं जो न्यायिक अधिकारियों और कोर्ट के पीठासीन अधिकारियों को दिया जाता है': जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट


जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि वकील कोर्ट के अधिकारी हैं और वे उसी तरह के सम्मान के हकदार हैं जो न्यायिक अधिकारियों और कोर्ट के पीठासीन अधिकारियों को दिया जा रहा है।

जस्टिस संजय धर ने देखा, "बेंच और बार न्याय के रथ के दो पहिये हैं। दोनों समान हैं और कोई भी दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। बार के सदस्य भी अत्यंत सम्मान और गरिमा के पात्र हैं।" 
अदालत एक याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिसमें याचिकाकर्ताओं ने मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, श्रीनगर द्वारा पारित आदेश को चुनौती दी थी, जिसके तहत याचिकाकर्ताओं द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम की धारा 12 के तहत मामले को न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत से स्थानांतरित करने के लिए दायर किया गया था। प्रथम श्रेणी (द्वितीय अतिरिक्त मुंसिफ), श्रीनगर को जिला श्रीनगर में सक्षम क्षेत्राधिकार के किसी अन्य न्यायालय में अस्वीकार कर दिया गया था।
याचिकाकर्ताओं ने अपनी याचिका में आरोप लगाया कि घरेलू हिंसा मामला बिल्कुल झूठा और तुच्छ है और जब याचिकाकर्ताओं ने इसके द्वारा पारित आदेश में संशोधन के लिए ट्रायल मजिस्ट्रेट से संपर्क किया, तो कई अनुरोधों के बावजूद उक्त आवेदन पर निर्णय नहीं लिया गया। याचिकाकर्ताओं ने आगे कहा कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ ट्रायल मजिस्ट्रेट की टिप्पणी अपमानजनक प्रकृति की नहीं है, जिसने उन्हें मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट श्रीनगर के पास ट्रायल मजिस्ट्रेट की अदालत से मामले को स्थानांतरित करने के लिए आवेदन करने के लिए मजबूर किया।

इस मामले पर फैसला सुनाते हुए जस्टिस धर ने कहा कि हालांकि याचिकाकर्ताओं की मुख्य शिकायत यह है कि ट्रायल मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश में एकतरफा संशोधन या अवकाश के लिए उनके आवेदन पर शीघ्रता से विचार नहीं किया जा रहा है। हालांकि यह भी प्रतीत होता है कि याचिकाकर्ताओं के वकील और मजिस्ट्रेट के बीच कुछ कठोर शब्दों का आदान-प्रदान हुआ, जिसने याचिकाकर्ताओं को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, श्रीनगर से संपर्क करने के लिए निचली मजिस्ट्रेट की अदालत से कार्यवाही स्थानांतरित करने के लिए मजबूर किया।

पीठ ने कहा कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने अपने आदेश में कार्यवाही को स्थानांतरित करने से इनकार कर दिया है, लेकिन ऐसा करते समय, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने वकीलों के खिलाफ कुछ व्यापक टिप्पणी करते हुए कहा है कि वकील न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ उनकी व्यक्तिगत सुविधा की सुविधा के लिए अनावश्यक आरोप लगाते हैं। पीठ ने कहा कि केवल इसलिए कि मजिस्ट्रेट याचिकाकर्ताओं के आवेदन का निपटान करने में विफल रहा है, मामले को स्थानांतरित करने का आधार नहीं है। यदि न्यायालय और वकील के बीच कुछ गर्म शब्दों का आदान-प्रदान होता है तो यह किसी मामले के हस्तांतरण का आधार भी नहीं है और इस प्रकार मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट श्रीनगर का निर्णय ट्रायल मजिस्ट्रेट से मामले को स्थानांतरित करने से इनकार करना कानूनी रूप से सही है और इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।

जज ने कहा कि वकीलों के खिलाफ सीजेएम द्वारा की गई व्यापक टिप्पणी मामले के निर्णय के लिए अनावश्यक है। कोर्ट ने कहा, "ऐसी छिटपुट घटनाएं हो सकती हैं जहां वकीलों ने न्यायिक अधिकारियों के खिलाफ आरोप लगाने का सहारा लिया है ताकि उनकी सुविधा के लिए अपने मामलों को एक अदालत से दूसरे न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग की जा सके, लेकिन तब इसे सामान्यीकृत नहीं किया जा सकता है। कुछ लोग सड़े हुए सेब, जैसे हर पेशे में होते हैं, लेकिन यह कहना कि वकील आमतौर पर इन युक्तियों को अपनाते हैं, सही नहीं है।" इस प्रकार सीजेएम श्रीनगर की टिप्पणी को खारिज करते हुए अदालत ने निष्कर्ष निकाला, लेकिन मामले के हस्तांतरण को अस्वीकार करने के अपने आदेश को बरकरार रखा।

 केस टाइटल: लतीफ अहमद राथर बनाम शफीका भाटी 
 Case Law interpretation by-  Arun Kumar Gupta, Advocate High Court Pryagraj. 

Wednesday, August 17, 2022

चेक बाउंस केस के निपटारे में देरी धारा 143A के तहत अंतरिम मुआवजा देने का आधार नहीं: कर्नाटक हाईकोर्ट


न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की पीठ पूरी कार्यवाही को रद्द करने के लिए सीआरपीसी की धारा 482 के तहत दायर आपराधिक याचिका पर विचार कर रही थी।

इस मामले में, शिकायतकर्ता ने आरोपी के खिलाफ एन.आई. की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध के लिए शिकायत दर्ज की है।

मजिस्ट्रेट ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 143-A के तहत इंस्ट्रूमेंट-चेक की राशि का 10% भुगतान करने का निर्देश दिया।

श्री डी.आर. याचिकाकर्ता के वकील रविशंकर ने प्रस्तुत किया कि बाद में समय पर आक्षेपित कार्यवाही पर सवाल उठाते हुए चुनौती को छोड़ना एक बाधा नहीं बनना चाहिए।

पीठ के समक्ष विचार का मुद्दा था:

क्या याचिकाकर्ता द्वारा कार्यवाही को रद्द करने के लिए दायर की गई अपील को स्वीकार किया जा सकता है या नहीं?

उच्च न्यायालय ने कहा कि आरोपी का आचरण संशोधन अधिनियम की धारा 143ए के तहत अंतरिम मुआवजा देने के लिए प्रेरक शक्ति होगा और ऐसे कारणों को आदेश में दर्ज किया जाना चाहिए, तो ऐसा आदेश दिमाग के आवेदन को प्रभावित करने वाला आदेश बन जाएगा।

पीठ ने कहा कि “यदि मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश को इस न्यायालय द्वारा पारित आदेश के आलोक में माना जाता है, तो यह निस्संदेह संशोधन अधिनियम की धारा 143A और पूर्व में निकाले गए आदेश का एकमात्र कारण के रूप में गलत होगा। आक्षेपित आदेश में यह है कि मामले के निपटारे में काफी समय लगेगा। मुआवजा देने के कारण के रूप में आरोपी के आचरण का भी उल्लेख नहीं है। ”

उपरोक्त को देखते हुए पीठ ने आपराधिक याचिका को स्वीकार कर लिया।

Tuesday, August 16, 2022

प्रदेश के अधिवक्ताओं की समस्याओं के लिये उ.प्र. बार काउंसिल का शिष्ट मंडल मुख्यमंत्री योगी से मिला।

आज प्रदेश के अधिवक्ताओं की समस्याओं को लेकर माननीय चेयरमैन बार काउंसिल श्री मधुसूदन त्रिपाठी जी के साथ माननीय मुख्यमंत्री महोदय से श्री शिव किशोर गौड़, श्री परेश मिश्रा जी पूर्व चेयरमैन व श्री प्रदीप कुमार सिंह मिले।
ज्ञापन में निम्न मांगे मुख्यमंत्री महोदय के समक्ष रखी गयीं-
1. अधिवक्ताओं के लिये 5 लाख रुपये का मुफ्त बीमा अथवा अधिवक्ताओं को आयुष्मान योजना का लाभ देना
2. मृतक अधिवताओं के लंबित दावों का यथाशीघ्र भुगतान
3. जिलों में अधिवताओं के चैम्बरों का निर्माण
4. अधिवक्ताओं व पत्रकारों की मृत्यु पर एक समान धन राशि का भुगतान 
5. 60 वर्ष से अधिक उम्र के अधिवक्ताओं के लिए पेंशन का भुगतान
6. एडवोकेट प्रोटेक्शन एक्ट लागू किया जाए

Thursday, August 11, 2022

While considering a bail application due consideration, inter alia, to be given to the criminal antecedents of the accused.High court rejected bail of Mukhtar Ansari

Criminal Procedure Code, 1973 Section 439 Indian Penal Code, 1860 Sections 419, 420, 467, 468, 471, 120B, 177 and 506
 Criminal Law Amendment Act, Section 7 - Bail application - Rejection - Sustainability - Long criminal history of the accused-applicant of most heinous offences - In the present case, ambulance was allegedly being used to carry his men armed with illegal and sophisticated weapons for his protection - Accused-applicant commands un-parallel fear in the minds and hearts of the people that no one dares to challenge him and his men and his politics - If the accused-applicant is enlarged on bail, the apprehension that he would tamper with the evidence and influence the witnesses, cannot be ruled out - No ground to release accused-appellant on bail - Bail application rejected.

Court Imposes Rs. 10,000/- Cost For Filing Affidavit WithoutDeponent's Signature, DirectsRemoval Of OathCommissioner For Fraud:Allahabad High Court

Allahabad Hon'ble High Court (Case: CRIMINAL MISC. BAIL APPLICATION No. 2835 of 2024) has taken strict action against an Oath Commission...