Sunday, August 21, 2022

तलाक़-ए-हसन क्या है?


सुप्रीम कोर्ट ने एक मुस्लिम महिला बेनज़ीर की याचिका की सुनवाई के दौरान ये कहा कि इस्लाम में 'तलाक़-ए-हसन' उतना अनुचित भी नहीं है.

क्या है मामला? 

बेनज़ीर हिना की वकील सुदामिनी शर्मा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि उनकी मुवक्किल का आठ माह का बच्चा है और बेनज़ीर के पति ने किसी अधिवक्ता के ज़रिए तीन बार लिखित रूप में तलाक़ भेजा है और कहा है कि 'तलाक़-ए-हसन' के तहत उन्होंने ऐसा किया.

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 'ट्रिपल तलाक़' या एक साथ तीन बार तलाक़ कहने से शादी ख़त्म होने को ग़लत करार दिया था. संयोग से सुप्रीम कोर्ट का ये फ़ैसला भी वर्ष 2017 के अगस्त महीने में ही आया था.

अब बेनज़ीर ने 'तलाक़-ए-हसन' को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. उन्होंने अपनी याचिका में कहा है कि "अदालत इस प्रक्रिया को 'एकतरफ़ा, असंवैधानिक' क़रार दे क्योंकि ये 'संविधान के अनुछेद 14, 15, 21 और 25 का उल्लंघन है."

हालांकि सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति एम एम सुन्दरेश की खंडपीठ ने कहा कि "तलाक़-ए-हसना 'उतना अनुचित भी नहीं है." ये टिप्पणी न्यायमूर्ति संजय किशन कौल ने फ़ैसला लिखते समय मौखिक रूप से की. 

उन्होंने टिप्पणी करते हुए ये भी कहा कि ''तलाक़-ए-हसन' उतना अनुचित भी नहीं है हम नहीं चाहते कि इस मामले को कोई एजेंडे के रूप में इस्तेमाल करे."

उनका कहना था कि वो आवेदनकर्ता बेनज़ीर के वकील की दलील से सहमत नहीं हैं. दो सदस्यों वाली खंडपीठ की अध्यक्षता कर रहे न्यायमूर्ति कौल ने ये भी कहा कि मुस्लिम महिलाओं को भी 'ख़ुला के तहत तलाक़' मांगने की स्वतंत्रता' है. यानी मुस्लिम महिला ख़ुद से भी तलाक़ ले सकती है.

तलाक़ सबसे बुरा काम"

सुदामिनी शर्मा ने कहा कि बेनज़ीर के पति यूसुफ़ नकी ने तलाक़ के लिए नहीं लिखा बल्कि अपने वकील के ज़रिए ही तीन बार तलाक़ की चिट्ठियां भिजवाईं. बेनज़ीर ने इस प्रक्रिया के संवैधानिक औचित्य पर सवाल उठाते हुए इस पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग की है.

इस बीच बेनज़ीर को उनके पति ने 'मेहर' के 15,000 रुपये दिए जो उन्होंने वापस लौटा दिए.

अदालत ने इस मामले की अगली सुनवाई अगस्त की 28 तारीख़ को रखी है.

जाने-माने इस्लामिक मामलों के जानकार और आलिम मौलाना राशिद ने सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का स्वागत किया, मगर उन्होंने बेनज़ीर के पति यूसुफ़ नकी ने जिस तरह तलाक़ दिया है उसपर आपत्ति जताई है. उनका कहना है कि पूरे मामले में मध्यस्ता करने की कोशिश भी नहीं की गई जो ग़लत है.
मौलाना राशिद जिन्होंने इस्लामी धार्मिक किताबें लिखी हैं कहते हैं, "अल्लाह के लिए सबसे बुरा काम कोई है तो वो है दो जीवन साथियों का तलाक़ लेना."

इसलिए उनका कहना है कि समाज के लोगों को बीच में मध्यस्थता करनी ही चाहिए. इस पर शरियत और इस्लामी तौर तरीक़ों की जानकारी रखने वाले आलिम या विद्वान कहते हैं कि शरियत में इस प्रक्रिया को स्पष्ट तरीक़े से बताया भी गया है.
हसन का मतलब 'बेहतर'
मौलाना राशिद कहते हैं, "तलाक़-ए-हसन की प्रक्रिया लंबी है. हसना का मतलब 'बेहतर' होता है इसलिए ये बेहतर तरीक़ा है."

मुस्लिम उलेमा कहते हैं कि सिर्फ़ तलाक़ बोलना ही काफ़ी नहीं है. वो कहते हैं कि ''पहली बार तलाक़ बोलने के बाद दंपति के बिस्तर भी अलग हो जाने चाहिए और दोनों के बीच कोई रिश्ता नहीं होना चाहिए. ऐसा महिला की तीन माहवारियों तक होना चाहिए.''

कांधला के रहने वाले मौलाना राशिद के अनुसार, शरियत में तलाक़ को ही ग़लत माना गया है.

उनका कहना है, ''तलाक़-ए-हसन के तहत पहली बार तलाक़ बोलने के बाद दंपति के बीच विवाद को ख़त्म करने की प्रक्रिया शुरू कर देनी चाहिए - या तो पंचायत के माध्यम से हो या फिर दोनों के परिवारों के लोगों का ये प्रयास करना चाहिए.

दूसरी बार भी तलाक़ बोलते वक़्त गवाह भी मौजूद रहने चाहिए और मध्यस्ता की प्रक्रिया भी होनी चाहिए. इतने प्रयासों के बाद भी अगर दोनों के बीच ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं कि तलाक़ का ही एक रास्ता बचता है, उस स्थिति में तीसरी माहवारी के बाद ही तलाक़ हो जाता है. वो भी जब सारे प्रयास ख़त्म हो जाएँ. इसमें पत्नी की सहमति भी ज़रूरी है.''
इस्लामी क़ानून के कुछ अन्य विद्वानों का मानना है कि इस बीच दंपति अगर एक साथ रहे और एक साथ एक ही बिस्तर पर सोते भी रहे तो ऐसी सूरत में ये तलाक़ मान्य ही नहीं होगा. उनका तर्क है कि अलग-अलग रहने पर ही पति और पत्नी को ये एहसास होगा कि उनमें क्या-क्या कमियां हैं और क्या वो एक-दूसरे से अलग होकर रह पाएंगे?
महिलाओं को भी तलाक़ देने का अधिकार
लेकिन पत्रकार रह चुकी बेनज़ीर ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि उनके साथ जो हुआ वो एकतरफ़ा क़दम था जबकि महिला को भी अधिकार होना चाहिए ये फ़ैसला करने का कि वो भी तलाक़ चाहती है या नहीं.

सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति कॉल ने मौखिक टिप्पणी करते हुए कहा कि मुस्लिम महिला को भी 'ख़ुला' यानी तलाक़ देने का अधिकार है. हालांकि मुस्लिम उलेमा कहते हैं कि ख़ुला लेने की सूरत में महिला को शादी के समय तय की गई 'मेहर' की रक़म नहीं मिलेगी.

मुस्लिम उलेमाओं के बीच इसको लेकर बहस भी चल रही है क्योंकि अलग-अलग 'फ़िरक़े' या पंथ अलग-अलग सामाजिक रीतियों के हिसाब से चलते हैं. उनका कहना है कि बरेलवी मुसलमान शरीयत और हदीस की व्याख्या अपने हिसाब से करते हैं तो देवबंदी और सलफ़ी मुसलमान अपने हिसाब से.

अदालतों में जब मामले पहुँचते हैं तो धार्मिक स्वतंत्रता की वजह से अदालतें इन मुद्दों को समाज पर ही छोड़ना बेहतर समझती हैं. ऐसा बेनज़ीर के मामले में भी हुआ है.
प्रस्तुतकर्ता 
अरुण कुमार गुप्त अधिवक्ता
 उच्च न्यायालय प्रयागराज
मो. नं - 9450680169

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